गुरुवार, 25 सितंबर 2008

जीवन-स्तर में सुधार के लिए ऊर्जा अनिवार्य

भारत की लगभग 70 प्रतिशत आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है। यदि हमें वर्तमान विकास की गति को बरकरार रखना है तो ग्रामीण ऊर्जा की उपलब्धता को सुनिश्चित करना सबसे महत्वपूर्ण चुनौती है। अब तक हमारे देश के 21 प्रतिशत गाँवों तथा 50 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों तक बिजली नहीं पहुँच पाई है।

ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच प्रति व्यक्ति ऊर्जा की खपत में काफी अंतर है। उदाहरण के लिए 75 प्रतिशत ग्रामीण परिवार रसोई के ईंधन के लिए लकड़ी पर, 10 प्रतिशत गोबर की उपालियों पर और लगभग 5 प्रतिशत रसोई गैस पर निर्भर हैं। जबकि इसके विपरीत, शहरी क्षेत्रों में खाना पकाने के लिए 22 प्रतिशत परिवार लकड़ी पर, अन्य 22 प्रतिशत केरोसिन पर तथा लगभग 44 प्रतिशत परिवार रसोई गैस पर निर्भर हैं। घर में प्रकाश के लिए 50 प्रतिशत ग्रामीण परिवार केरोसिन पर तथा अन्य 48 प्रतिशत बिजली पर निर्भर हैं।

जबकि शहरी क्षेत्रों में इसी कार्य के लिए 89 प्रतिशत परिवार बिजली पर तथा अन्य 10 प्रतिशत परिवार केरोसिन पर निर्भर हैं। ग्रामीण महिलाएँ अपने उत्पादक समय में से लगभग चार घंटे का समय रसोई के लिए लकड़ी चुनने और खाना बनाने में व्यतीत करती हैं लेकिन उनके इस श्रम के आर्थिक मूल्य को मान्यता नहीं दी जाती।

देश के विकास के लिए ऊर्जा की उपलब्धता एक आवश्यक पूर्व शर्त्त है। खाना पकाने, पानी की सफाई, कृषि, शिक्षा, परिवहन, रोज़गार सृजन एवं पर्यावरण को बचाये रखने जैसे दैनिक गतिविधियों में ऊर्जा महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

ग्रामीण क्षेत्रों में उपयोग होने वाले लगभग 80 प्रतिशत ऊर्जा बायोमास से उत्पन्न होता है। इससे गाँव में पहले से बिगड़ रही वनस्पति की स्थिति पर और दबाव बढ़ता जा रहा है। गैर उन्नत चूल्हा, लकड़ी इकट्ठा करने वाली महिलाएँ एवं बच्चों की कठिनाई को और अधिक बढ़ा देती है। सबसे अधिक, खाना पकाते समय इन घरेलू चूल्हों से निकलने वाला धुंआँ महिलाओं और बच्चों के श्वसन तंत्र को काफी हद तक प्रभावित करता है।

ऊर्जा संरक्षण में वृद्धि, ऊर्जा के स्तर में सुधार और नवीकरणीय स्रोतों से ऊर्जा के उत्पादन में वृद्धि कर विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में ऊर्जा के मामले में निश्चित रूप से आत्मनिर्भर बना जा सकता है।



धरती, मानव जाति की जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त ऊर्जा प्रदान करता है न कि हर व्यक्ति के लालच को पूरा के लिए - महात्मा गाँधी

ऊर्जा उत्पादन होने से पूर्व ही हम उसका उपयोग कर देते हैं।




कोयला, खनिज तेल और प्राकृतिक गैस ऐसे स्रोत हैं, जिसका अत्यधिक उपयोग होता है जबकि इन्हें इकट्ठा होने में कई हजार साल लग जाते हैं।




ऊर्जा संसाधन सीमित है




विश्व ऊर्जा संसाधन का लगभग 1 प्रतिशत ही भारत में पाया जाता है जबकि विश्व के कुल जनसंख्या का 6 प्रतिशत भारत में निवास करती है।




हम जिन ऊर्जा स्रोतों का उपयोग करते हैं उनमें से अधिकाँश का दोबारा उपयोग एवं पुनरारंभ नहीं हो सकता।




उपयोग होने वाले ईंधन में से 80 प्रतिशत ईंधन गैर पुनरारंभ ऊर्जा स्रोतों का संघटन करता है। ऐसा कहा जाता है कि हमारी ऊर्जा संसाधन और 40 वर्ष तक ही पर्याप्त होंगे।




जब हम ऊर्जा की बचत करते हैं तो देश की अधिक धनराशि की भी बचत करते हैं।




भारत के कच्चे तेल जरूरतों में से लगभग 75 प्रतिशत को आयात द्वारा पूरा किया जा रहा है जिसकी लागत प्रतिवर्ष लगभग 1,50,000 करोड़ रुपये है।




ऊर्जा बचत द्वारा हम अपने पैसों की बचत कर सकते हैं।




जब हम लकड़ी ईंधन की कम खपत करतें हैं, तब लकड़ी की आवश्यकता भी कम होती है और इसे इकट्ठा करने के लिए हमें मेहनत भी कम करनी पड़ती है।




ऊर्जा की बचत अर्थात् ऊर्जा का सृजन




एक यूनिट ऊर्जा की बचत दो यूनिट ऊर्जा उत्पादन के समान है।




प्रदूषण को कम करने के लिए ऊर्जा की बचत

ऊर्जा उत्पादन एवं उपयोग से अत्यधिक अनुपात में वायु प्रदूषण और 83 प्रतिशत से भी अधिक ग्रीन हाऊस गैस का उत्सर्जन होता है।




कल के उपयोग के लिए आज ऊर्जा संरक्षण, हमारा कर्त्तव्य है।




भारत में एक पुरानी कहावत इस प्रकार है- धरती, जल, एवं वायु हमारे माता-पिता का उपहार नहीं है बल्कि वह हमारे बच्चों से प्राप्त उधार है।







संरक्षण को अपनी आदत बनाएँ।

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